मैं मानव हूँ,
मानव की संतान हूँ।
अतः
यह स्वाभाविक है
जैसे दूसरे
मानव है
वैसी
मै भी हूँ।
जैसे,
उनमे जीवन है, मुझ में भी है ।
जैसे
वह सोच
सकते है, मै भी सोच सकती
हूँ।
उनकी
तरह मेरे शरीर में भी, रक्त
बहता है
पर फिर भी, मै उनसे कहीं अलग हूँ
कि मेरा विश्वास ज़ोर-ज़ोर से यह कहता है --
कि शरीर
कि लसिका उनकी सूख चुकी होगी,
मेरी नहीं;
कि हर बाहरी के आक्रमण
से, टूट वह जाया करते
हैं,
जम कर काला, रक्त हो गया होगा उनका,
मेरा नहीं,
कि हर संवेदना उनकी, घाव
बन जाया करती
है।
आक्रमण
मुझ पर भी होते हैं!
शारीरिक, वैचारिक ...
संवेदनाएँ, मुझे भी चोट पहुँचाती है!
पर, मेरी
लसिका न कभी
सूखी हैं, न सूखेगी ...
मेरा रक्त
न कभी जमा
हैं, न जमेगा
क्योंकि, मैं
नर नहीं, नारी
हूँ
अस्तित्व में
कहीं उससे भारी
हूँ ।
मेरा
रक्त, मेरी लसिका
गर सूख जायेंगे ...
गर सूख जायेंगे ...
तो जीवन क्या जीवंत
रह पाएँगे ?