Tuesday, February 12, 2013

क्योंकि मैं नारी हूँ




मैं  मानव हूँ,
            मानव की संतान हूँ।
अतः यह स्वाभाविक है
            जैसे दूसरे मानव है
वैसी मै भी हूँ।

जैसे, उनमे जीवन है, मुझ  में भी है
जैसे  वह सोच सकते है, मै भी सोच सकती हूँ।

उनकी तरह मेरे शरीर में भी, रक्त बहता है 
पर फिर भी, मै उनसे कहीं अलग हूँ 
कि मेरा विश्वास ज़ोर-ज़ोर से यह कहता है --
            कि शरीर कि लसिका उनकी सूख चुकी होगी,
            मेरी नहीं; 
            कि हर बाहरी के आक्रमण से, टूट वह जाया करते हैं, 
            जम कर काला, रक्त हो गया होगा उनका, 
            मेरा नहीं,
            कि हर संवेदना उनकी, घाव बन जाया करती है।

आक्रमण मुझ पर भी होते हैं!
           शारीरिक, वैचारिक ... 
संवेदनाएँ, मुझे भी चोट पहुँचाती है!
           पर, मेरी लसिका न कभी सूखी हैं, न सूखेगी ...
           मेरा रक्त न कभी जमा हैं, न जमेगा 
           क्योंकि, मैं नर नहीं, नारी हूँ 
           अस्तित्व में कहीं उससे भारी हूँ
मेरा रक्त, मेरी लसिका
गर सूख जायेंगे ...
तो जीवन क्या जीवंत रह पाएँगे ?

Sunday, February 10, 2013

Sapna (Dreams)

हमारे दैनिक जीवन में हम जो सपने देखते हैं, वो सारे सपने कभी तो हमें क्षणभर  के लिए बहुत सारी  खुशियाँ   दे जाते हैं, और कभी उदासीन बना जाते हैं। पर फिर भी यह मेरे जीबन में रंग भर जाते हैं। ऐसे कुछ सपनों को ले कर मैंने कुछ पंक्तियाँ लिखी है -

सपना 

सपना तुम जो हो , जैसी हो
भरती सबके जीवन में रंग हो
कभी हँसाती, कभी रुलाती
कभी दोनों को, दिखाती संग - संग हो।

सपना, क्या कभी तुमने सोचा है,
अगर तुम न होती, तो आदमी कैसा होता ?
न पूरा जीता, न पूरा मरता !

अब जब तुम हो, तो है आदमी भी,
पूरा न सही पर, क्षणिक तो जी लेता है कभी - कभी ...
खुशिओ के घूंट मुंह से न सही, पर आँखों से है पीता ...

तो यही अच्छा है कि -
जीता रहे आदमी,
जीते रहे उसके सपने,
पालता रहे, वह अपनों के सपने ...
पाता रहे, वह सपनो को अपने ...